भारतीयों के जीवन में धर्म का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, अपनी मानसिक और शारीरिक समस्याओं से निपटने का प्रत्येक धर्म दर्शन में एक तरीका दिया है। सभी धर्मों के जीवन और मृत्यु के बारे में कुछ विचार हैं और जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के कुछ सूत्र हैं। मनुष्य का मनुष्य के प्रति, मानव का पशुओं के और पौधों के प्रति दृष्टिकोण या व्यवहार बहुत कुछ धार्मिक आदेशों के अनुसार चलता है।

विकास के उच्चतम शिखर पर मनुष्य है, उसकी मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति सर्वश्रेष्ठ है, अतः अपनी इस ताकत को जो वह निर्बल और गूँगे असहाय पशुओं के जीवन को छीनने में लगाता है, के स्थान पर उनकी प्राण रक्षा में लगाना ही श्रेयस्कर कार्य है।

कुछ धर्म प्रत्येक जीव को आत्मा के आधार पर कि उसमें आत्मा (जिसमें परमात्मा बनने की शक्ति है।) मौजूद है. एक समान मानते हैं, बराबर सम्मान देने की बात करते हैं। कुछ अन्य धर्म ऐसा मानते हैं कि कुछ जानवर या पशु कम महत्वपूर्ण हैं, दूसरे पशुओं की तुलना में, जैसे- गाय ज्यादा महत्वपूर्ण है, सूअर की तुलना में या फिर सुअर के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार कुत्ते की तुलना में, जबकि दोनों बराबर बुद्धिमान जानवर हैं। यह सिर्फ मनुष्य का स्वयं को धोखा देने वाला चिंतन है, यह स्वार्थपरक है।

प्रत्येक धर्म के अनुयायी कुछ रूढ़ियों के तहत या धार्मिक ग्रंथों के उपदेशों का अनुकरण करते हुए पूजा-प्रार्थना संबंधी वस्त्र, पूजा का तरीका और खाद्य पदार्थों का चयन करते हैं। इस प्रकार भोजन, पूजा करने का तरीका, जिस धर्म या संप्रदाय में हम जन्म लेते हैं उससे प्रभावित रहता है। धर्म प्रमुख साधु, पुजारी, साध्वियाँ, उपदेशक, बहन आसानी से अपनी कथनी और करनी के माध्यम से लोगों को जीवन का सम्मान करना सिखा सकते हैं।

पशुओं के लिए प्रार्थना का एक सप्ताह जो 4 अक्टूबर को शामिल करते हुए रविवार से रविवार तक मनाया जाता है और सभी धार्मिक समुदायों के द्वारा हिस्सा लिया जाता है, जो इस सृष्टि में मौजूद, (भगवान के द्वारा निर्मित) प्रकृति को आदर-सम्मान प्रकट करते हैं।

यह योगी जहाँ मौजूद होता है वहाँ का वातावरण इतना शांत और सौम्य हो जाता है कि शेर के मन में गाय को देखकर उसे खाने का, हिंसा का भाव नहीं आता अपितु वे एक साथ खेलते हैं। यह उस अहिंसा की शक्ति है जिसे योगी अपने मन, वचन, और कर्म से पालन कर रहा है। यदि हम योग में अहिंसा को देखें तो पाएंगे कि योगी की जो क्रियाएँ हैं वे सब दूसरों को कष्ट न देने का अभ्यास हैं।

स्वामी विवेकानंद जी का एक लेख (राज योग पर) यहाँ दिया जा रहा है- राज योग को आठ भागों में बाँटा गया

है: यम- Non Killing या अभय, सच्चाई, चोरी नहीं करना, इंद्रिय संयम, उपहार ग्रहण नहीं करना। दूसरा है नियम- स्वच्छता, संतोष, सादगी, अध्ययन, परमात्मा के चरणों में स्वयं समर्पित करना। इसके पश्चात् आते हैं, आसन, प्राणायाम या श्वासों को साधना प्रत्याहार या इंद्रियों पर संयम धारणा या धारण, मन को एक स्थान पर केंद्रित करना। ध्यान और समाधि यह संपूर्ण साधना दया और करुणा से परिपूरित एक विधि है, जो किसी भी जीव को पीड़ा नहीं पहुँचाती है।

‘शील प्रभु पाद’ कहते हैं कि पशु-वध के कारण ही मनुष्यों में हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। दया, करुणा और क्षमा करने की प्रवृत्ति समाप्त हो रही है जिसके परिणामस्वरूप सदैव युद्ध और लड़ाइयाँ चलती रहती हैं। आदमी यह समझ ही नहीं पाता कि (कर्म सिद्धांत के आधार पर) वह जिस तरह पशुओं को बूचड़खानों में काटता है, उसी तरह युद्ध के मैदान में उसे भी काट दिया जाता है।

आइए, अब बात करते हैं आहार और आध्यात्मिक उन्नति के संबंध की। मांस कभी भी बिना चोट पहुंचाए प्राप्त नहीं किया जा सकता। मांस में निरंतर जीव उत्पन्न होते रहते हैं। इसमें सड़ने व गलने की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। हमारी संस्कृति में एक कहावत है, ‘जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन’ इस कहावत की गहराई में आप झाँककर देखें तो समझ सकेंगे कि बिना हक की कमाई या बेइमानी की कमाई से बनाया गया भोजन भी आपके मन को विकार युक्त कर सकता है, फिर तो किसी के प्राण छीनकर, आहों, घृणा, विद्वेष, हाहाकार, ये सब कुछ उत भोजन में समाएँ हो तो क्या यह भोजन खाने योग्य है। यह भोजन मानव को दानव का चेहरा दे देता है, उसकी संवेदनाओं को छीनकर दूसरों की वेदना को समझने के काबिल नहीं छोड़ता। जिन धर्मों का जन्म भारत में हुआ है, जैसे- हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिक्ख धर्म इन सभी धर्मों ने भोजन संबंधी एक नियमावली की है, जो जीवन के अंतिम परम लक्ष्य को प्राप्त करने में एक अहम् भूमिका निभाती है। कठोरतम तरीके से मात्र जैन ही शाकाहार का पालन करते हैं, इससे विपरीत आचरण करने वालों को जैन की श्रेणी में  रखा ही नहीं जाता। बौद्ध जीव दया और शाकाहार को प्रथम स्थान पर रखते हैं, किंत बौद्ध अनुयायियों ने अपनी सुविधा या झूठी संतुष्टि के लिए नियमों को लचीला बना लिया है। सिक्ख धर्म शाकाहार की इजाजत देता है, किंतु अपवादस्वरूप मात्र योद्धाओं के लिए भयंकर भूखमरी की स्थिति में स्वयं पशु-वध की पूर्ण जिम्मेदारी स्वीकार करने मांस, भक्षण की कदाचित् अनुमति है।

बौद्ध धर्म के अनुयायी समस्त जीव-जंतुओं के प्रति प्यार और सम्मान रखते हैं, परंतु अधिकांश बौद्ध शाकाहारी नहीं है, विशेषकर भारत से बाहर रहने वाले। मांसाहार के लिए वे यह तर्क देते हैं कि उन्होंने मारने में कोई हिस्सा नहीं अतः दोषी नहीं है। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से एक बार कहा था जो कुछ भी पात्र में आ जाए स्वीकार कर लेना, एक भिक्षु के पात्र में मांस का टुकड़ा आकर गिर गया और इस प्रकार के कमजोर इच्छा शक्ति वाले अनुयायियों ने से हुए जानवर के मांस को खाना आरंभ कर दिया।

भगवान महावीर के अनुयायी ‘जैन’ जिन्हें परम अहिंसक की श्रेणी में रखा जाता है, उन्हीं के समान हिंदुओं में विश्नोई समाज भी है जो पूर्णतः शाकाहार का पालन करता है, उनके प्रमुख उनतीस धार्मिक सिद्धांतों में पशुओं के सब-साथ पेड़-पौधों को भी नुकसान पहुंचाना वर्जित है। बकरी का पालना भी उनके उसूलों के खिलाफ है, क्योंकि अंत में वह बूचड़खाने की बलि चढ़ जाती है इतिहास गवाह है कि उनमें से अनेक लोगों ने प्राणियों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया और अभी भी उनमें से कई अवैध रूप से पशुओं का व्यापार करने वालों या पशुओं को मारने वाले के हाथों से (पशु रक्षा करते हुए) मारे जाते हैं।

हिंदू दर्शन ने भोजन को इस आधार पर बाँटा है कि वह भोजन-चेतना को किस प्रकार प्रभावित करता है। आ. रजनीश के अनुसार- जो भोजन हमें प्रिय होता है, वह अकारण तो हो ही नहीं सकता। वह भोजन खबर देता है, तुम कौन हो? उठना, बैठना, चलना, सोना, व्यवहार की सभी जानकारियाँ भोजन से प्राप्त हो जाती है। राजसिक, तामसिक और सात्विक, यह तीन प्रकार का भोजन है जो तीनों तरह की प्रवृतियों वाले मनुष्यों की जानकारी देता है। जो राजसिक भोजन है, वह उत्तेजक आहार है, जो तामसिक भोजन है, वह बासा उच्छिष्ट, ठंडा जिसमे कोई गति पैदा न हो, नींद और तंद्रा के लिए तामसिक भोजन उपयोगी है और तीसरा है सात्विक। वह व्यक्ति इन दोनों से भिन्न है, वह ने तो अति ठंडा भोजन करता है न अति गरम। जितना शरीर की जठराग्नि को मेल खत है, उतने ताप वाला शुद्ध, निर्मल, अविकृत भोजन ग्रहण करता है। राजसिक व्यक्ति हमेशा एक अजीब-सी चाँड़ में लगा रहता है, उसका भोजन कडुवा, खट्टा, नमकयुक्त, अतिगरम, तीक्ष्ण, रूखा दाहकारक होगा, यह नींद लाएगा, महत्वकांक्षाएँ पैदा करेगा और सोने के समय भी भीतर की दौड़ चलती रहगी, गहरी नींद

कभी नहीं आएगी, यदि कुर्सी पर भी बैठेगा तो पैर हिलाता रहेगा। राजसिक सदैव मन के तल पर जिएगा। • तामसिक व्यक्ति खुब सोएगा, घुटि भरेगा, चर्बी इकट्ठी होती जाएगी. ऐसे व्यक्ति मात्र शरीर के तल पर जीते है बाठ घंटे से ज्यादा नींद की आकांक्षा यदि पैदा होती है तो समझिए तमस जो सात्विक प्रवृत्ति के अनुसार जी रहा है, उसकी बुद्धि शुद्ध और तीक्ष्ण होगी। यह जो भोजन लेता है, लेते समय शांति भी देता है और प्रीति बढ़ाता है। रजस व्यक्ति का भोजन क्रोध बढ़ाता है। तमस व्यक्ति का भोजन आलस्य बढ़ाता है। सत्व व्यक्ति का भोजन प्रीति को बढ़ाता है। उसके पास एक मिठास होगी, उठने-बैठने में संगीत होगा, क्योंकि उसका शरीर भीतर भोजन के साथ लयबद्ध है। उसकी आयु स्वभावतया ज्यादा होगी।

शरीर भोजन से ही बना है। भोजन के बिना तीन महीने में शरीर विदा ले लेगा इसलिए जैसा भोजन होगा वैसी शरीर की सौम्यता होगी महत्वाकांक्षी व्यक्ति मन की दौड़ में जीता है; न वह प्रेम करता है और न प्रेम माँगता है। तामसिक व्यक्ति शिकायतें करता है कि कोई उसे प्रेम ही नहीं करता कोई तो उसका ख्याल रखे किंतु सात्विक भोजन हमें इतने प्रेम से भर देता है कि हम बाँटने को उत्सुक हो जाते हैं। इस प्रकार आयु, बुद्धि, बल, सुख, आरोग्य और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय आहार सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।

सात्विक व्यक्ति का आहार यदि तामसी को दिया जाए तो वह कहेगा घास-पात और यदि राजसी को दिया जाए तो वह कहेगा इसमें स्वाद नहीं, तेजी नहीं, नमक नहीं, मिर्च नहीं, कोई उत्तेजना नहीं। ध्यान रखिए, जो मसालों के स्वाद को स्वाद मानते हैं उनकी जीभ का स्वाद मर गया है इसलिए थोड़ी मिर्च रखने से जो जीभ पर तड़फन होती हैं उससे ही मुर्दा जीभ में कुछ जानसी महसूस होती है। जिसका स्वाद जीवित है, वह फलों और सब्जियों से इतने अनूठे स्वाद ले सकता है उसकी कल्पना भी मुश्किल है। सात्विक व्यक्ति स्वाद के लिए भोजन नहीं करता पर उसे परम स्वाद मिलता है, उसकी संवेदना खुल जाती है। वह ज्यादा सुनता है, वह ज्यादा देखता है, वह ज्यादा गंध पाता है। सात्विक गुलाब के फूलों के पास से निकलेगा तो उसे सुगंध आएगी किंतु राजसी निकलेगा तो उसे कोई सगंध नहीं आएगी। उसे चाहिए इत्र की तेज गंध इस प्रकार जीवन की संवेदनाएँ क्षीण हो गई हैं या रजस में उत्तेजना के कारण मर गई हैं या तमस में सो गई है सत्व को उपलब्ध व्यक्ति परम संवेदनशील है। वह प्रगाढ़ता से जीता है, फूल ज्यादा सुगंध देते हुए मालूम पड़ते हैं, हवाएं ज्यादा शीतलता प्रदान करती हुई मालूम होती हैं, नदी की कल-कल, ओंकार नाद से भर देती है, साधारण भोजन परम स्वाद देता है और साधारण मनुष्य उन्हें परम सुंदर प्रतिभाए मालूम होने लगती हैं, वे सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् को उपलब्ध हो जाते हैं।

(साभार – ‘ओशो वर्ल्ड ‘ अप्रैल 2002)

Related Article

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *